Friday 27 February 2015

कविता : सीखो


सीखो
निर्दोष मुस्कराना
बच्चों से
सीखो
उन्मुक्त व्यवहार
हवाओं        से
सीखो
करना अथाह प्यार
मातृ ह्रदय    से
सीखो
सिर्फ देना ही देना
पौधों से  पेंड़ों से
सीखो
बदलता व्यवहार
मौसम        से
यदि   सीखने     की    चाह है
तो      हम      सीख सकते हैं
धरती से    जो सब   सहती है
और     अम्बर         से    भी
जो     सबको   अपने    अन्दर
समाता  है सबकी रक्षा करता है
और     ईश्वर     से           भी
जो      सबका    दाता         है
हमारा      भाग्य    विधाता   है
सीखो  और व्यवहार    में लाओ
वो     सब जो    तुमने सीखा  है
वोह      निर्दोष         मुस्कराना
उन्मुक्त                     व्यवहार
मातृ       ह्रदय      सा      प्यार
देना            ही               देना
और पाने की चाहत     न   होना
बदलता                     व्यवहार
बनो       धरती       सा     उदार
अम्बर     से      बड़ा   दिलवाला
ये   सब       हो   सकता  है यदि
तुम       अपना          नजरिया
दुनिया           के    प्रति  बदलो
दुनिया को जीने के लायक बनाओ
दुनिया को जीने के लायक बनाओ
ताकि       उस     ईश्वर   को  भी
तुम्हे        बनाने    पर    गर्व हो
और वोह   फ़ख्र से   कह सके कि
उसका       बनाया           मानव
सर्व        गुण               संपन्न
उसकी     श्रेष्ठ         रचना       है
श्रेष्ठ                     रचना        है
श्रेष्ठ                     रचना        है

(समाप्त)

अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव

Saturday 14 February 2015

कविता : हाँ मैं भंवरा हूँ

हाँ      मैं       भँवरा      हूँ               
फूल  फूल      कली   कली
मँडराता                     हूँ
उन्हें       प्यार            के
गीत         सुनाता        हूँ
गुन    गुन         गुन गुन
मैं       मधुर            धुन
में        गाता             हूँ

कलियाँ     मुस्कराती    हैं
फूल हँसने    लगते      हैं
जब मैं    धुन में   गाता हूँ
फूलो     से     रस   पीकर
उनका पराग   बिखराता हूँ
इस     प्रकार             मैं
उनकी     संतति          में
अपना योगदान  निभाता हूँ
फूलों    से है    प्यार   मुझे
कलियाँ      मेरी  दोस्त   हैं
तितलियाँ  मेरी   बहिने  हैं
वे मेरा     हाथ    बटाती  हैं
वे    भी    पराग   को लेकर
फूल फूल         पहुँचाती  हैं
हूँ                         कठोर
मैं   कड़े      काठ   को   भी
काट     गुज़र     जाता    हूँ
पर      जब         कभी  बंद
फूलों        में        हो  जाता
उनके   आलिंगन में        ही
पूरी      रात       बिताता  हूँ
उनके   कोमल आलिंगन  में
मदमस्त    मैं   सो  जाता हूँ
सुबह जब   फूल  खिलते   हैं
तभी    निकल    मैं आता हूँ
अपनी    तमाम     कठोरता
मैं    नाज़ुक   फूलों        पर
नहीं       आजमाता         हूँ
 
मैं     हूँ मन     का   उजला 
यद्द्य्पी   तन से   काला हूँ
पर    तुम ये    सच   मानो
मैँ बड़ा     दिलवाला        हूँ
यदि मुझसे प्यार निभाओगे
तो   मैं भी   प्यार निभाऊँगा
पर यदि  मुझे      सताओगे
मैं     तुम्हे      काट खाऊंगा
हाँ      मैं      भँवरा        हूँ
गुन गुन   गुन गुन  गाता हूँ
और     सारी      दुनिया को
प्यार का     राग   सुनाता हूँ  
(समाप्त )
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव

Friday 13 February 2015

कविता : मन चाहता है

कविता : मन चाहता है


कमली   का    मन   चाहता   है    कि
उसे            कोई    उसे  प्यार    करे ……
जब वोह   देखती है सामने  रहने वाले
नव विवाहित दम्पत्ति प्रभा और प्रकाश
आपस     में     प्यार      करते     हैं
कमली      का     मन   चाहता है  कि
उसे     कोई   उसे भी  घुमाने  ले जाये
जब     वोह      प्रभा और   प्रकाश को
स्वछन्द         बाँहों में बाहें        थामे
पंछी जोड़े    सा    घूमते    देखती    है
कमली      का     मन   चाहता है   कि
कोई      उसे  भी    अच्छी अच्छी चीजें
बड़े प्यार और मनुहार     से गिफ्ट करे
कमली     का    मन    चाहता है    कि
वोह भी   चाय का कप     हाथ में पकड़
सुबह    सुबह    किसी को      नींद  से
प्यार से     जगाये     और          वोह
उसे अपने     आगोश में       खींच कर
भींच ले     और चुम्बनों की बौछार करे
और     वोह    भी  अपने को ढीला छोड़
उससे      लिपट    जाये             जैसे
प्रभा    करती     है    प्रकाश    के  साथ
कमली     बहुत सारे      बच्चों       की
माँ          बनना        चाहती          है
उन्हें     प्यार      करना     चाहती     है
उनके     संग     खेलना       चाहती   है
तुतलाना चाहती है उन्हें सजाना चाहती है
पर    उसके     मज़दूर    माँ          बाप
पैसे     की मज़बूरी     से  उसके      हाथ
अब         तक   पीले   नहीं कर पाये   हैं
अब जब जवानी का लावण्य ढलने लगा है
उसका   लाल चेहरा    पीला पड़ने लगा है
शरीर के   साथ मन    भी मरने   लगा है
उसे       पड़ोस          का           पंचम
ललचाई    आँखों से       देखता         है
उसे     इशारे करता       है और जब वोह
नहा के     कपडे बदलती    है वोह    ऐसे
ऐसे ताकता   है कि बस खा    ही  जायेगा
इसपर कमली यद्द्यपि गुस्सा दिखाती  है
उसे    पंचम   का      यूूँ   ताकना   कहीं
अंदर   से    भाता   भी    है और धीरे धीरे
उसे भी    पंचम    भाने     लगा         है
और वोह   उसके  सपनों में  आने लगा है
वोह     भी    उसके    इशारों का    जवाब
अब इशारों           से      देने      लगी है
दोनों      तरफ   बराबर    आग    लगी है
अब    शरीर का साथ    मन भी     देता है
उसका     मन    करता     है            कि
पंचम     सब       कुछ     वैसा    ही करे
जैसे प्रकाश    करता है    प्रभा के    साथ
पर   गरीब    माँ बाप     की       इज़्ज़त
आडें आती है   कमली वोह नहीं कर पाती
घर     से     नहीं     भाग            पाती
यद्द्यपि      उसका         मन  चाहता है
बहुत चाहता है    बड़ी शिद्दत से चाहता है
मन   है   कि           बस      चाहता  है
मन    है   कि          बस      चाहता  है
मन    है     कि       बस      चाहता   है
(समाप्त)
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
विषेस नोट : प्रस्तुत कविता एक नव युवती
की मनःस्थिति प्रस्तुत करती है कि उसका
मन क्या चाहता है और क्या उसे रोकता है

कविता : समय चक्र

कविता : समय चक्र          

समय चक्र घूमता है
सुबह दोपहर शाम रात
फिर सुबह दोपहर शाम रात
ऐसा होता है रोज रोज
फिर इसमें उल्लेखनीय क्या है
हाँ है उल्लेखनीय यदि
किसी दुःख या चिंता या परेशानी से
दिन न कटे वे लम्बे हो जाएँ
शामें बोझिल हो जाएँ
रातें करवटें बदलते काटें
चिंता है कि मिटती नहीं
दुःख है कि जाता नहीं
परेशानी है कि हल होती नहीं
समय चक्र रुक सा गया लगता है
कब बढ़ेगा समय चक्र कुछ पता नहीं
इस रात  का कोई सबेरा भी नहीं
कोई  उम्मीद भी नहीं
कोई रास्ता भी नहीं
हे भगवन यह समय चक्र क्यों रुक गया
समय चक्र चलता क्यों नहीं
कब दोबारा सबेरा आएगा
कब समय चक्र चल जायेगा
अच्छा है जो ईश्वर ने हमें
भूलने की नेमत दी है
और हम जल्द भूल के सभी गम
फिर से खुश होते है और
जिंदगी में मशगूल होते हैं
और समय चक्र फिर
चलने लगता है और होते है
सुबह दोपहर शाम और रात
और उनका  अनावरत  चक्र
वो ही समय चक्र
बारम्बार  लगातार ………..

(समाप्त)
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
403 ए ,सनफ्लावर ,रहेजा काम्प्लेक्स
पत्रिपुल के निकट
जिला ठाणे , महाराष्ट्र -421301
मोबाईल -०९३२१४९७४१५ .