Monday 21 December 2015

दो कवितायेँ....१) आँखें २) नज़र

कविता(१).....आँखें


आँखें.... हमारी  "काया " का ..महत्वपूर्ण अंग हैं 
बिना उनके ...यह जहाँ अंधेरा है ..इस खूबसूरती
को  निहारने में आँखें हमारा साथ देती हैं ..इसके 
अतिरिक्त   ये बहुत कुछ   करती हैं   ...क्या...?
देखिये  इस कविता की लाइनों मेंजिसका शीर्षक
है .."आँखे "....
 
आँखें   जब      दर्द    बयां    करती      है
गज़ब      की      खूबसरत    दिखती   है

ऑंखें    जब         प्यार    बयां  करती है
बड़ी   प्यारी     प्यारी    सी    लगती    है

और       जब        वे      बयां   करती   है
कोई     प्यारा      सा           गुस्सा     वो
 प्यारी  कोई    रागिनी     सी    लगती है

वोही       आँखे जब      गुस्से में होती  है लाल
किसी      तूफ़ान का आगाज़      सी  लगती है

आँखे   जब  भी     नम होती   है  किसी वजह
प्यारी     प्यारी   शबनम से    सजी लगती है

गर    झाँक सको किसी की    गहरी आँखों में
मुकम्मल गहरे समुन्दर की मानिंद लगती है

तुम्हारे    मन  में क्या है    तुम कहो   न कहो
आँखे    तुम्हारी    सब बेख़ौफ़   बयां करती है

आँखे     ही     दिखाती   है   दुनियाँ   के मंज़र
सारी    कायनात   दुल्हन सी    नज़र आती है

आँखों से   ही  देख पाते है दोस्त दुश्मन चेहरा
उसकी     सारी   हकीकत साफ  नज़र आती है

कहते     हैं सच  औ   झूँठ में सिर्फ फर्क इतना
कानो     सुनी      बात पर      एतबार      नहीं
आँखों     देखी   बात  पर  सच  मानी जाती है

आँखों    की कीमत का अंदाज़ा इस बात में है
एक   एक आँख उपरवाले       की बेशकीमती
सौगात      और    मेहरबानी    मानी जाती है

कविता (२)  नज़र ..
.

नज़र .........हमारे देखने  की   क्रिया  को नज़र
कहतें हैं ...अलग अलग ढंग से देखने के अलग
अलग प्रभाव होते  है सामने वाले पर......इसी
विषय को  प्रस्तुत करती  है..यह कविता   :-  

 
नज़र के बारे में शायर यूँ भी बयाँ करते है

नज़र तिरछी जो हुयी तो    कज़ा बन गयी
नज़र       सीधी     हुयी  तो सदा बन गयी

नज़र    नम    हुई तो दिया दर्द का पैगाम
नज़र      झुकी       तो हया      बन   गयी

नज़रो   से   मारा    तो      न जिया बेचारा
नज़र     ने   संभाला तो दिल  गया बेचारा

नज़र       नज़र       की      बस       बात है
कुछ      मेरे      और      कुछ     तेरे साथ है

जिसे          मिल         गयी    कोई नाज़नीं
मुक्कमल      मुकद्दर भी   उसके ही साथ है

नज़र     से   गर    बच सकते   हो  तो बचो
नज़र    के    मारे     यूँ      ही      न     मरो

ये          नज़र    बड़ी    कातिल   शै       है
कि  इस   नज़र का    मारा कोई  बचा नहीं

है    कोई माई  का लाल.... इस      जहाँ  में
जो      नज़र    की    मार से कभी मरा नहीं
(समाप्त)

Thursday 29 October 2015

कविता : कुछ अलग ..

यह कविता बिलकुल अलग ढंग पर लिखी  गयी है 
इस विधा में कुल छः लाइन होती है और पहिली 
लाइन में एक दूसरी में दो तीसरी तीन इस क्रम में 
छठी लाइन छः शब्द होते हैं ..और छह  छह  लाइन 
के ग्रुप बनते हैं ... आप पढ़िए और आनंद लीजिये .. 
शरद जी  जो कविता में वर्णित है इस कविता के 
जानकार हैं और मेरे करीबी भी ...पेश  है 
 कविता .... कुछ अलग  
 
हम
क्यों आये
इस दुनिया म
क्या लेने या देने
क्या था उद्देश्य आने का
नहीं पता या जानना भी चाहा


नहीं
तो क्यों
रह गये यहाँ
इतने सारे दिनों तक
किसकी इज़ाज़त या मर्जी से
या खाली अपने लिये खुदगर्जी से


करना
कभी सवाल
अपने ज़मीर से
या सोई आत्मा से
जो अंश  भगवान का है
पर उसके दिये काम नहीं करती


आत्मा
अंश   तो
है भगवान का
पर उस  जैसी पवित्रता
का   लेशमात्र भी है उसमे
निरुद्देश्य भटकती घूमती दुनिया में


बातें
तो सिर्फ
बातें ही है
उनका क्या और छोर
बस भटकाती ही है सबको
कोई समझ पाता है कोई नहीं


ये
मेरी लिखी
चन्द लाईने क्या
हाइकु की परिभाषा में
आती   है क्या शरद भाई
या   कोई और है विधा यह


आप
हो जानकर
कई विधाओं के
विभिन्न प्रकार की कविताये
रचीं    है   आपने   सुन्दर सुन्दर
इन लाइनों को पढ़कर देखिये बताइये


मेरा
यह प्रयास
कैसा लगा आपको
आप  है भाई जानकर
कविताओं के आधुनिक रूप के
पढ़िये सोंचिये फिर बताइये ये रचनाएँ


शायद
आपका ज्ञान
मुझे रास्ता दिखाये
आधुनिक कविता पध्दति का
और  मैं    भी लिख पाऊँ अच्छी
कविताएँ बिल्कुल आपकी तरह प्यारी प्यारी


(समाप्त)

Friday 16 October 2015

कविता : वर्षा रानी



मैं उसे छोड़ कर परदेस क्या   गया वो तो
रूठ ही गयीउसके दर्शन   दुर्लभ हो गये मैं
उसके लिये बहुत तड़पा और तरसा परदेश
में पर उसकी शक्ल ही न दिखी .अब कल
जो लौट के घर आया हूँ .सारे गिले शिकवे
छोड़   वो मुझसे मिलने    अपने पूरे ताम
झाम के साथ लौट आई है... पढ़िए ताज़ा
तरीन कविता "वर्षा रानी "

कविता। :  वर्षा रानी
जो मुझसे        रूठ        गयी थी
मुझसे मिलना   छोड़       गयी थी
शक्ल दिखाना   छोड़       गयी थी
आज मेरे  वापस     घर    आने पर
वो पुरजोरि  से मुझसे      मिल रही
सारी   इच्छाएँ          पूरी  कर रही
छम छम     करके          बरस रही
घटाओं    में       उमड़ी  पड़   रही
मुझे   मिल    रही  वो   मेरी  प्यारी
तड़पा दिल जिसके  लिये वो न्यारी
वर्षा रानी         मुझे        भा  गयी
वो मेरे           अंतस पे     छा  गयी
बहुत     प्यार       उससे  करता  हूँ
उसके लिये       बहुत     तड़पा  हूँ
वो मेरी प्यारी      रानी      आ  गयी
मेरी      वर्षा       रानी     आ  गयी
उमड़   घुमड़    कर   बरस  रही वो
चमक चमक     कर   बरस रही वो
मेरे सूखे    जीवन में बहार आ गयी
वर्षा रानी          पुनः        आ गयी
तुझे छोड़   अब न कभी जाऊंगा मैं
तुझे नाराज  अब  न कर पाउँगा  मैं
कभी न छोड़   के  जाना वर्षा रानी
मुझसे     प्यार    निभाना  ओ रानी
(समाप्त)






Friday 7 August 2015

कविता : मिलना साँप कि केचुल का

आज सुबह…….
टहलते   टहलते ...
अपने घर के गार्डन में ...
अचानक दिखी .......
एक केंचुल साँप की ...
जी   धक्  से रह गया ....
एक ठण्डी  सी सिहरन ...
उतर गयी रीढ़ के ऊपर से नीचे तक ...
हाँथ  पाँव  ठन्डे .....
चीख निकल गयी ....
अरे बाप रे….
केंचुल है तो साँप भी होगा ...
नज़र दौडाई नज़दीक ...नज़दीक ..
दूर .........दूर ......
कहीं तो  कुछ भी तो नहीं ....
पड़ोसी इक्कठे हो गये ....
चीख सुन कर ....
इतना बड़ा साँप ...बाप रे ...
नहीं ...नहीं छोटा ही होगा ....यह तो ....
केंचुल का एक टुकड़ा ही है ....
मैंने अपने मन  को धिक्कारा ...
अरे ...डरे भी किससे ... तो केंचुल से ...
साँप से डरे तो फिर भी  समझ में आता है ..
फिर साँप से भी क्यों डरें ..
वोह किसी का क्या बिगाड़ता है
बेचारा अपने रास्ते आता है
अपने रास्ते जाता है ..
किसी से कुछ नहीं कहता ...
खतरा दिखा तो ही फुफकारता है ...
नहीं माने तो ही काटता है…
उसे भी तो आखिर जीने का  हक है ...
आत्मरक्षा का हक़ है ...


अतः ना तो केचुल से डरना है ...
और ना ही साँप से ....
और साँप बड़ा हों या छोटा ....
पतला हो या मोटा ...
उसके विष से आदमी मरता है
(साँप के )साइज़ से नहीं ..


अतः यह बहस ही बेकार है
कि साँप बड़ा था या छोटा ..
पतला था या मोटा ..
उसे तंग न किया जाये ..
उसे  यदि ढँग से जीने दिया जाये ..
तो वोह किसी का कुछ  बिगाड़ता  नहीं है
किसी का कुछ लेता नहीं है


वोह तो है दोस्त मानव का ....
ख़त्म करता है चूहे और वे तमाम नस्लें ...
जो आदमी की दुश्मन है
अतः आइए आज से हम ..
डरना छोड़ दें केचुल से
साँप से ...

क्योकि साँप हमारा ..
.पारवारिक मित्र है ..
और मित्रता उसका
 उत्तम चरित्र है
आप उसके रास्ते में मत आइये
वोह आपके रास्ते में नहीं आयेगा
आप को देख कर वोह स्वयं ही ..
भाग जायेगा ...



(समाप्त ) वास्तव में साँप हमारा मित्र है और अकारण हमें हानि नहीं पहुंचाता
,सब साँप ज़हरीले भी नहीं होते ,अतः साँपों की रक्षा मानव जाति के हित  में है

Thursday 6 August 2015

कविता :जियो बड़े प्यार से

जियो    बड़े    प्यार से      मरो   बड़े प्यार से
इस      चाशनी   को    तुम    चाहे   कैसे पियो
जिन्दगी है       तुम्हारी      चाहे      जैसे जियो
चाहे     तो           रोते         बिसूरते      रहो
चाहे तो  धनवानों     को कोसते  और घूरते रहो
चाहे तो    अपनी ख़राब  किस्मत का रोना रोवो
या    किसी    बहते     हुवे   सरकारी    नल पे
अपनी           गन्दी          कथरी         धोवो
चाहे        तो    किसी      हसीना से  नैन जोड़ो
या दोस्तों   के साथ  ख़ुशी मनाओ फटाके फोड़ो
गर      नहीं        समझ      आ             रही
कि      जिन्दगी     को   कैसे       है      जीना
हर     ज़हर      को पी   के  कैसे      जीना   ?
कैसे     जिन्दगी    में है तमाम  खुशियाँ पाना ?
तो       भइए     गुरु की      शरण में आ जाना
इधर      आने     में ज़रा      भी     न घबराना
तुम्हारी       मुसीबते         दूर    करेंगे     हम
जीवन    की  तमाम   कमियों से    लड़ेंगे   हम
क्योकि    जिन्दगी  जिन्दादिली   का     नाम है
मुर्दा दिल       क्या     खाक  जिया करते हैं  ?
वे      तो      केवल     गम   ही पिया करतें हैं
अतः     जियो     जियो       भरपूर      जियो
जीवन       की       चाशनी        भरपूर पियो
समझे  न  लल्ला

(समाप्त)

Tuesday 4 August 2015

कविता :दंगे के सन्दर्भ में

यह  मत    पूँछो  कि  कौन मरा
वो   हिन्दू   या    मुसलमान था
वो     कोई     भी    हो        पर
पहिले     वो   इक   इन्सान  था

यह मत   पूँछो घर किसका जला
वोह  हिन्दू का  या मुसलमान का
वोह घर कोई  भी क्योँ  न  हो पर
था    तो   वोह    हिन्दुस्तान  का
हर    वार     लग   रहा छाती  पर
हर   गोली छलनी  करती है सीना
हर     आग  का    गोला करता है
इन्सान  का   मुश्किल अब जीना

जिस    घर में   आज  मौत हुई
उसने   अपना      सब खोया है
है  इन्सानियत की भी मौत हुई
ईमान        बैठकर    रोया   है

बेईमान साज़िशें   सियासत की
इन्सान   का   ख़ून   बहाया  है
फैला   कर    दहशत  गुण्डागर्दी
लूट खसोट आगजनी बदअमनी
अपना    धंदा      चमकाया   है

इस   दंगे   में हमने क्या खोया
और   क्या हमने पाया  है     ?
हिसाब     करोगे    तो   देखोगे
हमने   कुछ   भी    पाया  नहीं
केवल   और   केवल गँवाया  है
सदियों   में जो   बन  पाता   है
वो सौहार्द हमने मुफ्त लुटाया है

(समाप्त)

Monday 3 August 2015

कविता : मेरा बाप.......

मेरा   बाप ….मेरे अंदर   अभी जिंदा है …..
वोह   मुझे   बताता है …   .सिखाता है ….
क्या उचित है और क्या अनुचित ….?
वोह     मुझे     नियंत्रित   करता     है ……
मै उसके सिद्धांतों का पालन करता हूँ …..
उसके    आदर्शो    पर .   .चलता     हूँ
मेरे   बाप का दुश्मन    मेरा दुश्मन है …
और …उसका दोस्त ..      .मेरा दोस्त …
मैं बाप   के बनाये मकान में रहता हूँ ..
उसके    खेतों में …काम     कारता हूँ …
उसके   बताये देवताओं को पूजता हूँ
उसके   सिखाये   त्यौहार   मनाता हूँ
मेरे    बाप ने     मुझे बताया था …कि
” अपन  हिन्दू  हैं ……..”
यह     भी बताया     था    कि …कि ..
हिन्दू    क्या    होता है .       …उसे …
क्या    करना चाहिये …और क्या नहीं ..
उसने     बहुत    कुछ    सिखाया   था …
न       सीखने                             पर …
या   आज्ञा के    उन्लनघन करने पर ..
बेरहमी    से ..    मारा     भी        था ..
आज     मैं     भी  वही सब करता हूँ
अपनी      संतानों    के            साथ …
इसीलिये ..        .तो       कहता   हूँ ..
कि ..    मेरा    बाप     मेरे      अंदर ..
पूरी     तरह    से          जिन्दा    है …
वोह      मेरी    आँखों  से   देखता है …
मेरे     कानों        से         सुनता है …..
मेरे      दिमाग      से       सोंचता है
पर .     .फिर      भी       सब     पर
नियंत्रण          उसी          का     है ….
और      मैं     इस     नियंत्रण   को ………..
सहर्ष       स्वीकार भी      करता हूँ …..
मेरा        बाप          महान       था ….
तहे      दिल से मैं   यह मानता हूँ …
मैं उसके आदर्शो का …शिक्षाओं का ..
पालन              करता                 हूँ ..
और               अपनी   संतानों   को …
उचित . उनुचित का  भेद बताता हूँ …
उन्हें     बताता हूँ    क्या    करना है …
और                 क्या               नहीं ….
यह       बताना मेरा  कर्त्तव्य भी है ..
और .          ..हक़                    भी …..
क्योंकि   मैं भी  अपनी संतानों में ……
सदा ..    .सदा ..   .जिंदा      रहूँगा …
उन्हें              नियंत्रित      करूँगा …
उन्हें                             बताऊंगा .
उचित          उनुचित     का भेद …
उन्हें  अच्छा  इन्सान    बनाऊंगा …
उन्हें तमाम बुराइयों से बचाऊंगा …
तब         मेरी संताने   भी कहेंगी ….
हाँ              हमारा               बाप
हमारे       अंदर      ” अभी  तक”
जिंदा है.           …….जिंदा है ……
और    यह     सिलसिला चलेगा
क़यामत                           तक……
हाँ    हमारे पूर्वज  सच कहते थे …
आत्मा .कभी नहीं मरती केवल …..
चोले    बदल  लिया     करती है …
जैसे       हम    कपड़े बदलते हैं …
और    इसी प्रकार हमारे पूर्वज …..
ऋषि      मुनि ,महान आत्माएँ ..
राम .कृष्ण जीसिस .मोहम्मद ..
सभी    हम     सब में  जिंदा हैं …
और हमें    उपदेश देते रहतें हैं
बुराइयों    से ..मोड़ते    रहते हैं …
काश       ये      समझने    का
..दिलो                  दिमाग …
हमारे          पास       होता ….
काश            ऐसा      होता ……
काश      ऐसा             होता …
तो  इस          धरती     पर
निखालिस     स्वर्ग    होता
निखालिस     स्वर्ग   होता
(समाप्त)
विशेष नोट   : यह     कविता जीन्स सिधांत पर
व् उसके विश्वास      पर   आधारित   है जिसके
अनुसार तमाम गुण दोष  संतानों में    पीदियों
तक  चलती रहतें  है

Thursday 30 July 2015

सोंच विचार : बुजुर्गों की समस्याएँ उन पर विचार व् उनके निदान

Thursday 23 July 2015

कविता : सफ़ेद साँप ...

बेटी           के          साथ
नदी                     किनारे
घूमते                     घूमते
मुझे                        और
मेरी        बेटी            को
एक                     सुन्दर
मखमली   टोकरी    दिखी
उत्सुकतावश            जब
बेटी                          ने
उसे      उठा          लिया
और                        मेरे
मना   करने   से     पहिले
उसे   खोल     भी   लिया
देखा                        तो
एक      सुन्दर         साँप
छोटा                      सा
पतला                     सा
निरीह                     सा
गोल         गोल        सा
उसमे        पड़ा        था
मैंने           बेटी        को
मना                    किया
कि                       बेटा
साँप       की         जाति
बड़ी    जहरीली       और
खतरनाक     होती      है
उसे                    अपने
पास       रखने          से
नुकसान    ही  होता    है
पर    बेटी      तो     उस
साँप      की     सुन्दरता
और        निरीहता    पर
मुग्ध                       थी
कुछ      भी          सुनने
और      समझने       को
तैयार         नहीं       थी
उस      साँप           को
घर       ले          चलने
की   जिद्द     कर    बैठी
समझाना           बुझाना
बे    असर     हो     गया
वो        सारे         पैतरे
आजमाने              लगी
अनुनय        विनय    से
चीखने             चिल्लाने
और        रोने        तक
बेटी         का       प्यार
मेरी       बुद्धि          पर
भारी                    पड़ा
उस       साँप          को
हम    घर       ले    आये
एक                   सुन्दर
पिंजरे                      में
उसे                   रक्खा
घरवालों   मिलने   वालों
दोस्तों           पड़ोसियों
सबने     समझाया    पर
बेटी   कुछ     भी  सुनने
सोंचने      समझने   को
तैयार                   नहीं
उसके                  आगे
सबको  झुकना   ही पड़ा
बेटी    उस    साँप    को
अपने   पास        रखती
उसकी   देखभाल करती
उसे     दूध        पिलाती
धीरे                      धीरे
बेटी                        भी
बड़ी        होने         लगी
और  सफ़ेद     साँप    भी
अब                       साँप
बड़ा    हो      गया      था
और         सुन्दर       भी
हाँ           वो           अब
फुफकारने              और
फन    पटकने    लगा था
कभी                    कभी
गुस्से         में            वो
बड़ा               खतरनाक
दिखने        लगा       था
अब    हम      सब      भी
सशंकित      हो         गए
फिर                         से
सबने        बेटी          को
समझाया                  कि
बेटी        सुन्दर       और
सफ़ेद      होने            के
बावजूद       यह        एक
खतरनाक  और  जहरीला
साँप     ही        तो       है
इससे              दूर      ही
रहा   जाये     तो   अच्छा
यह        कभी            भी
किसी      को             भी
नुकसान   पहुंचा सकता है
इसे      बाहर           छोड़
आने     में  ही    भलाई  है
पर                         बेटी
उसके        मोंह          में
बुरी    तरह     उलझी थी
कुच्छ                       भी
सुनने        समझने     को
तय्यार          नहीं      थी
एक                        दिन
सबकी      सलाह       पर
चुप चाप        जब     बेटी
घर       से             बाहर
कहीं         गयी          थी
उस   साँप      को    सुदूर
जंगल   में     छोड़   आया
वापस      आने          पर
उस   साँप    को   न    पा
उसने        रो         रोकर
चिल्ला        चिल्ला       कर
अपने        को         और
सारे         घर           को
हलकान     कर      लिया
मुझे   वो   साँप     चाहिए
मुझे                    उससे
प्यार     हो      गया     है
वोह                       मुझे
कुछ                        भी
नुकसान      नहीं    करेगा
बहुत   समझाने   पर   भी
वोह            न        मानी
और     उस     साँप   को
ढूँढने        निकल     गयी
दो         दिन           बाद
जब     वोह   लौटी      तो
उसके   चेहरे    पर  ख़ुशी
और        होंठों          पर
मुस्कान                    थी
वोह                       साँप
बड़े                खतरनाक
तरीके                       से
उसके      गले             में
लिपटा                     था
अब     हम       सभी    के
होश          उड़          गए
लड़की                   साँप
छोड़ने    को तैयार    नहीं
और  साँप   लड़की    को
छोड़ने   को तैयार    नहीं
समझाना            बुझाना
सुब      बेकार हो रहा था
साँप          फिर         से
हमारे          घर          में
आ           गया          था


एक   दिन    वही       हुवा
जिसका      हमें  डर    था
साँप    ने   लड़की      को
डंस                      लिया
बेटी         बेहोश         थी
सारा      शरीर   नीला था
मुँह से   फेन   बह रहा था
हम          उसे       लेकर
अस्पताल               भागे
डाक्टरों     की     मेहनत
और    हमारे   भाग्य    ने
साथ                    दिया
लड़की की जान बच गयी
उसका शरीर पीला    था
वोह     बहुत   उदास थी
खैर    समय   के    साथ
हम      उस   हादसे  को
भूल                       गए
लड़की  की    सेहत और
सूरत      निखर     आयी
वोह फिर से बतियाने और
मुस्कराने                लगी
समय देख   एक सुन्दर से
राजकुमार   से लड़के   से
उसकी   शादी    करा  दी
अब वोह अपने परिवार में
और हम अपने  संसार में
खुश    और      प्रसन्न  हैं
उस    हादसे            को
भूल         चुके           हैं
इस    घटना  की कहानी
इसलिए    दुहरा    रहें हैं
कि    फिर   कोई   पिता
बेटी    की   गलत   और
गैर    वाजिब   माँग   को
न झुके     न माने  बल्कि
सख्ती से     मना    करे
ताकि     ऐसे     हादसों
की              पुनरावृत्ति
फिर   कभी      न    हो
फिर   कभी      न    हो
फिर   कभी      न    हो



(समाप्त)

कविता :मृत्यु ......

मृत्यु तो    आती है …  अवश्यम्भावी है
वो    अज़र….   अमर…  और   सत्य है
वो महा शक्तिशाली . .शान्तिदायिनी है
पल में पीड़ा हरनेवाली असीम शान्ति है


जो      आया           है    संसार में …..
राजा हो …   रंक   हो…      या फ़कीर
सबके लिए मृत्यु का एक दिन  तय है
समय    तय    है …..घड़ी    तय    है


कोई    मृत्यु से  लड़   नहीं     सकता
कोई    उससे    जीत    नहीं   सकता
कोई       चाहे   भी     चंद        घड़ी
ज्यादा     जी      नहीं          सकता
कोई  चाहे  भी तो   मृत्यु के गाल से
किसी     को    छीन    नहीं   सकता


फिर   जब  हम      जानते है ……कि
मृत्यु  अवश्यम्भावी है … अटल  है…
तो      क्यों       हर                 कोई
डरता        है     आसन्न     मृत्यु से
लोग    क्यों  जीना   चाहतें हैं हमेशा….


हमारे    धर्म में    मृत्यु का     मतलब
आत्मा के  द्वारा   चोला बदलने का है
आत्मा     कभी  न   जन्म      लेती है
और       न     ही       कभी    मरती है
वो         तय कार्यक्रम     के  अनुसार
जो            तकदीर     बनाती         है
अपने          चोले     बदला    करती है
अतः           आइये                     हम
अपनी    मौत से     साक्षात्कार      करें
उससे    डरें     नहीं…    उसे   प्यार करें
जब भी अवसर आये     हँसते हँसते मरें
जब     उसे   आना     ही है      तो आये
अपना   काम  करे   और      चली जाये
फिर   डरना     और    बिलखना  कैसा
किसी  के    मरने पर रोना तो बेकार है
मरने के बाद पार्थिव शरीर भी बेकार है
उसे जलाओ ..  धरती में दबावो     या
पानी में बहावो…कुछ फर्क नहीं पड़ता
मृत्यु     अतः      स्वागत की चीज़ है
मृत्यु अतः      स्वागत की ही चीज़ है


(समाप्त)

कविता : दंगे की भूमिका और शुरुवात ....

एक दिन एक कौवे के बच्चे ने कौवे से कहा
कि हमने लगभग हर चार पैर वाले
जीव का माँस खाया है,
मगर आजतक दो पैर पर चलने वाले
जीव का माँस नहीं खाया है..
,
पापा कैसा होता है इंसानों का माँस?
कौवे ने कहा मैंने जीवन में तीन बार
खाया है, बहुत स्वादिष्ट होता है..
,
कौवे के बच्चे ने कहा मुझे भी खाना है..
कौवे ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा
चलो खिला देता हूँ.. बस मैं जैसा कह रहा हूँ
वैसे ही करना मैंने ये तरीका अपने पुरखों
से सीखा है..
,
कौवे ने अपने बेटे को एक जगह
रुकने को कहा और थोड़ी देर बाद माँस
के दो टुकड़े उठा लाया..
कौवे के बच्चे ने खाया तो
कहा की
ये तो सूअर के माँस जैसा लग रहा है..
कौवे ने कहा अरे ये खाने के
लिए नहीं है..
इस से ढेर सारा माँस बनाया जा सकता है..
जैसे दही जमाने के लिए थोड़ा सा दही
दूध में डाल कर छोड़ दिया जाता है,
वैसे ही इसे छोड़ कर आना है..
बस देखना कल तक कितना स्वादिष्ट
माँस मिलेगा,
वो भी मनुष्य का
,
बच्चे को बात समझ में नहीं आई
मगर वो कौवे का जादू देखने के लिए
उत्सुक था..
,
कौवे ने उन दो माँस के टुकड़ों में से
एक टुकड़ा एक मंदिर में
और दूसरा
पास की एक मस्जिद में टपका दिया..
तब तक शाम हो चली थी,
,
कौवे ने कहा अब कल सुबह तक हम सभी को
ढेर सारा दो पैर वाले जानवरोँ का
माँस मिलने वाला है..
,
सुबह सवेरे कौवे और बच्चे
ने देखा तो
सचमुच गली-गली में मनुष्यों की
कटी और जली लाशें बिखरी पड़ीं थीं..
हर तफ़र सन्नाटा था..
पुलिस सड़कों पर घूम रही थी..
कर्फ्यू लगा हुआ था..
आज कौवे के बच्चे ने कौवे से दो पैर वाले
जानवर का शिकार करना सीख लिया था..
,
कौवे के बच्चे ने पूछा अगर दो पैर वाला मनुष्य
हमारी चालाकी समझ गया तो ये तरीका
बेकार हो जायेगा..
कौवे ने कहा सदियाँ गुज़र गईं मगर
आज तक दो पैर वाला जानवर
हमारे इस जाल में फंसता ही आया है..
सूअर या बैल के माँस का एक टुकड़ा,
हजारों दो पैर वाले जानवरों को
पागल कर देता है,
वो एक दूसरे को मारने लग जाते हैं
और हम आराम से उन्हें खाते हैं..
मुझे नहीं लगता कभी उसे इतनी अक़ल
आने वाली है..
,
कौवे के बेटे ने कहा क्या कभी किसी ने
इन्हें समझाने की कोशिश नहीं की..
,
कौवे ने कहा एक बार एक ने इन्हें
समझाने की कोशिश की थी,
मनुष्यों ने उसे dharam ka dushman
कह के मार दिया…………
यहाँ सवाल ये उठता है की कौआ कौन ?????
,
स्टोरी बोधक है
लाइँ एवं शेयर करके
अधिकाधिक लोगोँ तक पहुँचाएँ

विशेष नोट :ये कविता मुझे फेस बुक से मिली और
Mohammad Shamad जी की लिखी   है यह
एक ऐसा सच है जिसे हर भारतीय को जानना   ही
चाहिए

कविता : तुम करेला .....



तुम  करेला   तो    खैर
पहिले      भी          थे
अब       नीम        पर
चढ़      कर         और
कडुवे      हो     गए हो
जब      तक           थे
वर्क्स              मैनेजर
करते     थे      बकवास
दिखाते       थे      रुतबे
अपनी                गन्दी
मानसिकता छिछोरापन
स्वार्थ    से            भरा
तुम्हारा           व्यवहार
सारी   इंसानियत   भूल
हैवानियत              का
खेल       खेलते        थे
और    अब    जब    कि
तुम     बन            गए
डिप्टी  जनरल   मैनेजर
तुम्हारा अहं बढ़ गया  है
बददिमागी        तुम्हारे
ऊपर      काबिज़       है
तुम    किसी से     सीधे
मुँह    बात    नहीं करते
हर      किसी            से
उलझ     जाते         हो
अपनी पदवी ओहदे  का
रौब      झाड़ते         हो
जो असहाय  दीन   और
अपाहिज    हैं  उन   पर
तुम्हारा                रौब
नजला             बनकर
बरस        रहा          है
लोग     त्रस्त हो   रहे हैं
आहें     भर       रहे    हैं
बददुवा     दे     रहें     है
आँसू      पी     रहें      हैं
पर        तुम       उनका
शोषण करते  नहीं थकते
हाँ      एक           तबका
ऐसा       भी               है
जिनसे    तुम    दबते  हो
मनाते     हो     कि      वे
कभी                  तुम्हारे
सामने          न      आयें
उनके   सामने   आते  ही
तुम्हारी              अदृश्य
दुम                   तुम्हारे
दोनों    पैरो   के      बीच
दब         जाती          है
जबान         तालू      से
चिपक        जाती      है
गला  खुश्क  हो जाता है
तुम              घिघियाने
मिमयाने     लगते    हो
क्योकि                 तुम
उन्हें  झेल    नहीं सकते
गलती  पर     जो  थे न
तुम्हारा             ज़मीर
तुम्हारा साथ  नहीं देता
तुम्हारे   पाप     तुम्हारे
सामने  आने   लगते  हैं
गुनाह आँखों  के सामने
नाचने      लगतें       हैं
और   तुम      अचानक
रोबीले से ..कातर  दुखी
दीनहीन नज़र  आते हो
हाँ   मैं नेता   गणों   की
बात    ही    कर   रहा हूँ
गलती पर हो   तभी  तो
उन्हें फेस नहीं  कर पाते
तुम्हारा  सारा         रौब
झड         चुका  होता है
और                     तुम
बीमार      बीमार      से
नज़र           आते     हो
यही   हालत      तुम्हारी
जनरल मैनजर साहब के
आगमन    पर   होती है
तुम्हारी                पूरी
कोशिश    होती  है  कि
तुम   उनके   दौरे  पर
उनके सामने   न  पड़ो
पर      वे           तुम्हे
बुला  या बुलवा लेते हैं
तुम्हारी           जबान
तालू से चिपक जातीहै
दिल    जोर   जोर   से
धडकने     लगता    है
कपडे    पसीने        से
गीले   हो    जाते     हैं
आवाज़       मिमयाने
घिघियाने    लगती है
तब   तुम     न कडुवे
दीखते हो    न कसैले
तुम     दीखते      हो
बलिबेदी    कि  तरफ
घसीटे             जाते
बकरे       की    तरह
जो    चलता      नहीं
घसीटा    जाता     है
वधस्थल   की   ओर
मैं               तुम्हारे
दोनों      रूपों     को
भलीभांति  जानता हूँ
तुम्हे खूब समझता हूँ
तुम  एक  कायर   हो
महा   डरपोक       हो
केवल    कमजोरों पर
रौब    मारते         हो
अतः             मुझसे
संभल    कर    रहना
कहीं    ऐसा    न   हो
कि        मैं       तुम्हें
बीच              बाज़ार
न     नंगा       कर दूं
तुम्हारी    आबरू  की
चादर    उतार       दूँ
तुम करेला    तो  खैर
पहिले      भी        थे
अब नीम पर  चढ़कर
ज्यादा   कडुवे    और
कसैले   हो    गए  हो
पर    मैं       तुम्हारी
असलियत जानता हूँ
औरों    से      ज्यादा
तुम्हे    पहिचानता हूँ समझे करेला जी
(समाप्त)
विशेष नोट :पुरानी डायरी से
एक पुराना पन्ना

कविता : अभी भी समय है .....


जब    तुम    कहती हो कि
तुम एक  परसेंट    भी मुझे
प्यार  नहीं    नहीं    करतीं
मुझे      एकदम        यकीं
नहीं                        होता
क्योंकि                 तुम्हारी
आँखों      की          चमक
मंद  मंद      मुस्कान   और
शरारती    चितवन     कुछ
और     ही    बयाँ करतीं हैं
मैं     जानता     हूँ कि मुझे
चिढ़ाने    और सताने     में
तुम्हे    विशेष      प्रसन्नता
मिलती      है    जो तुम्हारी
बॉडी                    लैंग्वेज
छिपा        नहीं         पाती
पर       तुम      हो       कि
ऐसे     खेल       खेलने  से
बाज़            नहीं     आतीं
आखिर                     मुझे
यूँ           सताने            से
तुम       कौन       सी ख़ुशी
बटोर              लेती      हो
पके      बचपन          और
जवानी की       संधि  जिसे
किशोरावस्था   भी कहते है
जब   सपने     कोमल और
प्यारे          रहतें            हैं
तुमने अचानक मेरे दिल पर
दस्तक         दी          और
उसे           खाली       देख
डेरा     जमाकर    बैठ गयीं
वो       मेरा     दिल      जो
तुम्हारा घर    हुआ करता है
आज तुम्हारे इस  एलान से
बेतरह    घायल  है     और
बहुत       जल्द          तुम्हे
एहसास    हो   जायेगा कि
तुमने क्या      गलती की है
ऐसा       मज़ाक         कर
जब       तुम खो       दोगी
तुम्हारा   ये     अनन्य प्रेमी
जो      इस     झटके   को
न           झेल       पायेगा
और                     बेचारा
मर            ही      जायेगा
अतः         समझाता     हूँ
अभी       भी     समय   है
अपनी     गलती सुधार लो
प्यार का प्रतिशत बढ़ा कर
शत     प्रतिशत     कर लो
अपनी      गलती       और
मजाक से     तौबा कर लो
फिर से गले से  लग जाओ
तुम            मेरी       सिर्फ
मेरी       बन           जाओ
मैं        तुम्हे       न    सिर्फ
माफ़                कर    दूंगा
सीने            से     लगाकर
चूम             भी        लूँगा
(समाप्त)

कविता : इंतज़ार में

वोह                          आँखें

वोह                    बिछुड़ना

आँखों                          से

ओझिल       होती     सूरत

शनै                          शनै

याद     आती                है

वोह बिछुड़ने   की घड़ियाँ

तुम्हारी   वो  ही सूरत तो

बसी    है   मन प्रांगण में

तुम    उधर   हो   मज़बूर

इधर          मैं            भी

पर           भूला        नहीं

छण      भर   भी     तुम्हे

कर्तव्यों                     की

पुकार      पर          हमने

दी          है           कुर्बानी

तुम     वहां   खुश      रहो

यह  दुआ   मैं   करता   हूँ

अपना    फ़र्ज़    ठीक    से

अंज़ाम                    करो

यह      दुआ      करता  हूँ

मैं      भी      खुश       रहूँ

यह   दुआ    तुम       करो

अपने            फ़र्ज़      को

अंजाम           कर    सकूँ

यह          कामना    करो

हम                    मिलेंगे

अपने                   अपने

अंजाम                   दिए

फ़र्ज़ों         के         साथ

दोनों          नदियों    की

धार                         का

पुनः     संगम        होगा

सुख    भरी  डुबकी होगी

और      तुम्हारा     साथ

वोह     सुस्वादु   भोजन

और         आत्मतीयता

उसी   की         चाह  में

इंतज़ार                   में

कटेंगे  यह       दिन भी

तुम परेशान  मत होना

मेरी                खातिर

मैं    भी धीरज   धरूँगा

तुम्हारी            खातिर

आखिर इंतज़ार का भी

अपना      मज़ा        है

वोही       मज़ा        तो

मैं      अब    ले  रहा हूँ

कटते       जा   रहे   है

दिन        पर       दिन

वोह    दिन भी    फिर

ज़रूर              आएगा

जब                  हमारे

बीच         का फ़ासला

खुद    ही कट  जायेगा

खुद   ही कट  जायेगा


आमीन आमीन  आमीन

(समाप्त)

कविता : मरने की दुवाएँ .....माँगते लोग



बुड्ढ़ा      सोंचता      है    कि


वो   क्यों   नहीं मरता ……?

इतने   कष्टों  के   बाद    भी

वो  ज़िंदा  क्यों    है ……..?

दिखाई        नहीं         देता

सुनाई        नहीं          देता

हज़ारों                      कष्ट ..

ईश्वर  भी   भूल   गया    है

काश   उठा   ले      अब  तो
तीमारदार भी  सोंचता है  कि

ये बुड्ढ़ा क्यों नहीं मरता   ?

बस जीता  जा रहा है बेवजह

न काम का        न काज का

बिला    वजह   की तकलीफ

पर     बुड्ढ़ा  है    कि    बस

जिए       जा     रहा        है

अपनी                    तमाम
तकलीफों    के       बावजूद
बुड्ढे          के         कारण
कहीं      जा    नहीं   सकते

कहीं     आ   नहीं     सकते

बस     मोह  में     फँसे   हैं

जिंदगी          गारत       है

खुद    भी बुढ़ाते  जा  रहे हैं

अपनी     जिंदगी         का
मज़ा     नहीं  ले  पा  रहे हैं

कब      मिलेगी     निजात

इस             बूढ़े           से
अब     दोनों   ही मज़बूर हैं

बुड्ढा       मरता        नहीं

तीमारदार   फ्री   होता नहीं

ईश्वर        भी  भूल   गया

बीमार को    तीमारदार को

कैसी  अजीब   लीला है कि

जिस   माँ बाप    बुज़ुर्ग की

हम     इज़्ज़त    करते   हैं

सदा     मान        देते    हैं

बूढ़े              होने       पर
उनकी      ही     मौत  की

दुवाएँ        मांगते        हैं

कभी     स्वार्थवश      तो
कभी              निःस्वार्थ
सच           यदि   बुढ़ापा
आता            ही      नहीं

यूँ     ही      चल       देते
एक                      दिन

हँसते                  खेलते

पर                       ऐसा
होता  ही  कहाँ है ……?

काश       ऐसा      होता

काश       ऐसा      होता

तो   बीमार   तीमारदार

दोनों       बच      जाते
आमीन    आमीन   आमीन

(समाप्त)