Tuesday 30 September 2014

मिलना साँप के केंचुल का......




आज सुबह…….
टहलते   टहलते ...

अपने घर के गार्डन में ...

अचानक दिखी .......

एक केंचुल  साँप  की ...


जी   धक्  से रह गया ....

एक ठण्डी  सी सिहरन ...

उतर गयी रीढ़ के ऊपर से नीचे तक ...

हाँथ  पाँव  ठन्डे .....
चीख निकल गयी ....
अरे बाप रे….
केंचुल है तो  साँप  भी होगा ...
नज़र दौडाई नज़दीक ...नज़दीक ..
दूर .........दूर ......
कहीं तो  कुछ भी तो नहीं ....
पड़ोसी इक्कठे हो गये ....
चीख सुन कर ....
इतना बड़ा  साँप ...बाप रे ...
नहीं ...नहीं छोटा ही होगा ....यह तो ....
केंचुल का एक टुकड़ा ही है ....
मैंने अपने मन  को धिक्कारा ...
अरे ...डरे भी किससे ... तो केंचुल से ...

साँप से डरे तो फिर भी  समझ में आता है ..


फिर  साँप से भी क्यों डरें ..

वोह किसी का क्या बिगाड़ता है

बेचारा अपने रास्ते आता है

अपने रास्ते जाता है ..
किसी से कुछ नहीं कहता ...
खतरा दिखा तो ही फुफकारता है ...
नहीं माने तो ही काटता है…
उसे भी तो आखिर जीने का  हक है ...
आत्मरक्षा का हक़ है ...


अतः ना तो केचुल से डरना है ...

और ना ही  साँप से ....

और  साँप  बड़ा हों या छोटा ....

पतला हो या मोटा ...

उसके विष से आदमी मरता है
( साँप के )साइज़ से नहीं ..



अतः यह बहस ही बेकार है

कि  साँप बड़ा था या छोटा ..

पतला था या मोटा ..

उसे तंग न किया जाये ..

उसे  यदि ढँग से जीने दिया जाये ..
तो वोह किसी का कुछ  बिगाड़ता  नहीं है
किसी का कुछ लेता नहीं है


वोह तो है दोस्त मानव का ....

ख़त्म करता है चूहे और वे तमाम नस्लें ...

जो आदमी की दुश्मन है

अतः आइए आज से हम ..

डरना छोड़ दें केचुल से
साँप से ...

क्योकि  साँप हमारा ..

.पारवारिक मित्र है ..

और मित्रता उसका

 उत्तम चरित्र है

आप उसके रास्ते में मत आइये
वोह आपके रास्ते में नहीं आयेगा
आप को देख कर वोह स्वयं ही ..
भाग जायेगा ...


(समाप्त ) 

वास्तव में  साँप हमारा मित्र है और अकारण हमें हानि नहीं पहुंचाता

,सब साँप ज़हरीले भी नहीं होते ,अतः साँपों की रक्षा मानव जाति के हित  में है

"आलू के पराठे"...ब्लॉग का परिचय

कल ही   अपना नया  ब्लॉग प्रारंभ
किया है    नाम है  "आलू के पराठे"
इस    नाम के पीछे   सबसे पहिला
और   महत्वपूर्ण कारण    है कि ये
मुझे   करोंड़ों लोगों की  तरह बहुत
पसंद है बहुत   कम मुल्य   में बड़ी
मात्रा    में   तय्यार    होते  हैं  कोई
नखरा     नहीं    चाहे सादा   खाओ तमाटोसास से खाओ किसी चटनी से खाओ    सब    तरह से   अच्छा लगताहै चाहे इसे सादा नमक डाल कर  बनाओ चाहे    तरह   तरह के मसाले डाल    कर    इसे तीखा  व् अपने स्वादके   अनुसार   बनाओ पराठे जी कोकोई एतराज़ या गुरेज नहीं ये अपनेअन्यभाइयों मूली का पराठा    गोभी का  पराठा मेथी का पराठा आदि आदितथा बहनों आलू की कचोरी   उर्द की कचोरी चने की दाल की    कचोरी  सहित ये जनाब सब जगह छायेऔर पसंद किये जा रहे हैं
अब सवाल   है कि  ब्लाग का नाम
आलू के पराठे ही   क्यों  क्योकि ये सीधा है सरल है   हर की   पहुँच में
भी है उनकी  पसंद    भी    मेरे इस ब्लाग में आपको  ऐसी ही स्वादिष्ट
सरल मजेदार   और गंभीर सन्देश
देने   वाली    सामग्री   मिलेगी जो राष्ट्रभक्ति  समाज सेवा  सामाजिक न्याय  और उनके प्रति कर्तव्य माँ बापभाई बहन    परिवार   के प्रति अपने   कर्तव्य सभी कुछ ऐसा जो सर्वजनहिताय     सर्व जन सुखाय होगा हाँराष्ट्र प्रेम भाषा प्रेम से कोई समझौता नहीं होगा पाहिले प्रयास
में अपनी   मौलिक अप्रकाशित दो
कवितायेँ   "जिम्मेदार बनो"  तथा
"मृत्यु क्यों" डाली है आपसे प्रार्थना
हैं इन्हें पढ़े और अपनी राय देने का
कष्ट करे   जिससे मुझे    ब्लॉग को
ज्यादा प्रभावी   बनाने में सहायता
मिले
निवेदक
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव

Saturday 27 September 2014

गरमा गरम पराठे...

   गरमा  गरम  पराठे 


कविता का परिचय :-मेरे कानपुर प्रवास के समय मेरे सरकारी निवास के सर्वेंट क्वार्टर में बिट्टी नाम की एक अधेड़ मुस्लिम महिला सर्वेंट के रूप में 

                          सपरिवार रहती थी उनके सुल्ताना नाम की एक युवती कन्या  और शाहिद वाहिद  नाम के दो पुत्र थे ;प्रस्तुत कविता में उन्ही लोंगो के
                           साथ हमारे संबंधों को दर्शाते हुए कुछ सन्देश समाज को देने का प्रयास किया है 
          
                    
दिन ब्रहस्पति वार ........
समय रात के आठ बजे…. 
पिछला दरवाज़ा .....
अचानक खटका ...
खट... खट ..खट ...
पर्दा हटाया ..देखा ..
खड़ी थी सुल्ताना ....
लेकर कुछ प्लेट पर ढक कर ...



दरवाजा खोला ...
अन्दर बुलाया ..
उसने हाथ बढाया ...
ये आप के लिये हैं 
अम्मी ने भेजा है 
ऐसा ..बताया ...
अम्मी ..बिट्टी जो ..
हमारी मैड सर्वेंट हैं ..
बुज़ुर्ग हैं ...मुसलमान हैं 
बहुत ही स्नेही ..व सहृदय हैं ..
वो हिन्दू मुसलमान को  तो जानती हैं 
पर परस्पर प्रेम के चलते ...
आपस में कोई भेद नहीं मानती हैं 
साहब को आलू के गरमा गरम पराठे .....
बेहद पसंद हैं ..ये जानती हैं 
खैर ..सुल्ताना की पकड़ाई प्लेट ..
श्रीमतीजी के हाँथ में थी ..
नवरात के दिन .......
मुसलमान के घर का खाना ...
श्रीमतीजी असमंजस में थीं ...
सुल्ताना जा चुकी थी ...
घर पर केवल तीन व्यक्ति ..
मैं ,श्रीमतीजी और हमारे बुज़ुर्ग 
पचासी वर्षीय ससुरजी ..
धरम करम ...वाले ...
श्रीमतीजी ने बताया ..
नवरात है वे तो नहीं खायेंगे ..
अपने और पिताजी के लिए खाना ...
अलग से बनाएँगी ..
मैं मुस्कराया ...
पराठों से कवर हटाया ..
गरमा गरम पराठे ...
आलू भरे .......
अपनी खुशबू बिखेर रहे थे ..
उनमें से आ रही थी 
प्यार की खुशबू ..
आस्था की रंगत थी उन पराठों पर ..
कंहीं शबरी के बेर ....याद आये ..
जिन्हें श्रीराम ने प्यार से खाये ..
पराठा ..तो ठेठ पराठा था ..
ना हिन्दू था ना मुसलमान 
ना उसका कोई अलग धर्म था ..
ना अलग ईमान था ..
बस पराठा था केवल पराठा ..
उसे उठाया ....
तोडा कौर मुहँ तक लाया ...
खुशबू से मेरा तन और मन भर गया 
बिट्टी के स्नेह से मेरा अंतर्मन तक 
रोमांचित हो गया 
न वहां हिन्दू था न मुसलमान 
कामधेनु के दूध सद्रश ...
सुख देने वाला पराठा था ....
मैंने एक कौर खाया ...
खूब मनको भाया ...
मैंने श्रीमतीजी से कहा ...
कि गौर से देखो ये केवल एक पराठा है 
आलू भरा गोल गोल गरमा गरम 
प्यार और आस्था से सराबोर 
वे मेरी बात मानती हैं 
कुछ कुछ समझ उन्हें भी है 
उन्होंने भी हाथ बढाया ..
हम्दोनो ने ही पराठों को स्वाद से खाया 
हम तृप्त हो रहे थे 
पराठों के प्रेम में सराबोर हो रहे थे 
हाँ ..हमने बुज़ुर्ग पिताजी को नही बताया 
उनकी बरसों पुरानी आस्था को नहीं डिगाया 
उनके लिए अलगसे खाना बनाया 
और प्रेमसे उन्हें खिलाया 
यदि इसी प्रकार से ...
पराठों को लेने देने का ...
प्रचलन चल जाये ...तो 
दुनिया की संकुचित मनोवृति ...
कुछ कम हो जाये 
धर्म बड़ी चीज है इसमें कोइ शक नहीं 
पर मानवता और प्रेम से बड़ी ...
नहीं है…. .....
आस्था के सामने धर्मं कुछ भी नहीं है 
आस्था ही धर्म का भी  मूल है 
आस्था को जो न जान पाया 
वोह धर्म को क्या पहिचान पाया 
खैर हमने पराठे बड़े चाव से खाये 
उसके स्वाद और रस से ...
हमने खूब खूब आनंद उठाये 
अगली सुबह हमने बिट्टी को ...
गरमा गरम पराठों के लिए धन्यबाद दिया 
उनके चेहरे के संतोष और आभा में 
जो इस बात से थी 
कि हमने पराठे ख़ुशी और चाव से खाए 
मुझे तो उनके चेहरे पर…. 
काशी मथुरा और काबा भी ...



नज़र आये ....
काश इस शहर में और भी ..
बिट्टी यां होतीं ..
काश इस शहर में लोग 
भेजते पराठे एक दूसरे के घर ..
तो कुछ तो कम होती ...
यह हिन्दू मुसलमान की खाईं ..
जो इस देश के नेता ...
लगातार बढ़ा रहें हैं ....
और हिन्दू मुसलमान को ...
आपस में लड़ा रहें हैं ......
आपस में लड़ा रहें हैं ..
आपस में लड़ा रहें हैं ...





(समाप्त) 

Friday 26 September 2014

गरमा गरम पराठे

कविता का परिचय :-मेरे कानपुर प्रवास के समय मेरे सरकारी निवास के सर्वेंट क्वार्टर में बिट्टी नाम की एक अधेड़ मुस्लिम महिला सर्वेंट के रूप में 
                          सपरिवार रहती थी उनके सुल्ताना नाम की एक युवती कन्या  और शाहिद वाहिद  नाम के दो पुत्र थे ;प्रस्तुत कविता में उन्ही लोंगो के
                           साथ हमारे संबंधों को दर्शाते हुए कुछ सन्देश समाज को देने का प्रयास किया है 


              
                       गरमा  गरम  पराठे 
दिन ब्रहस्पति वार ........
समय रात के आठ बजे…. 
पिछला दरवाज़ा .....
अचानक खटका ...
खट... खट ..खट ...
पर्दा हटाया ..देखा ..
खड़ी थी सुल्ताना ....
लेकर कुछ प्लेट पर ढक कर ...

दरवाजा खोला ...
अन्दर बुलाया ..
उसने हाथ बढाया ...
ये आप के लिये हैं 
अम्मी ने भेजा है 
ऐसा ..बताया ...
अम्मी ..बिट्टी जो ..
हमारी मैड सर्वेंट हैं ..
बुज़ुर्ग हैं ...मुसलमान हैं 
बहुत ही स्नेही ..व सहृदय हैं ..
वो हिन्दू मुसलमान को  तो जानती हैं 
पर परस्पर प्रेम के चलते ...
आपस में कोई भेद नहीं मानती हैं 
साहब को आलू के गरमा गरम पराठे .....
बेहद पसंद हैं ..ये जानती हैं 
खैर ..सुल्ताना की पकड़ाई प्लेट ..
श्रीमतीजी के हाँथ में थी ..
नवरात के दिन .......
मुसलमान के घर का खाना ...
श्रीमतीजी असमंजस में थीं ...
सुल्ताना जा चुकी थी ...
घर पर केवल तीन व्यक्ति ..
मैं ,श्रीमतीजी और हमारे बुज़ुर्ग 
पचासी वर्षीय ससुरजी ..
धरम करम ...वाले ...
श्रीमतीजी ने बताया ..
नवरात है वे तो नहीं खायेंगे ..
अपने और पिताजी के लिए खाना ...
अलग से बनाएँगी ..
मैं मुस्कराया ...
पराठों से कवर हटाया ..
गरमा गरम पराठे ...
आलू भरे .......
अपनी खुशबू बिखेर रहे थे ..
उनमें से आ रही थी 
प्यार की खुशबू ..
आस्था की रंगत थी उन पराठों पर ..
कंहीं शबरी के बेर ....याद आये ..
जिन्हें श्रीराम ने प्यार से खाये ..
पराठा ..तो ठेठ पराठा था ..
ना हिन्दू था ना मुसलमान 
ना उसका कोई अलग धर्म था ..
ना अलग ईमान था ..
बस पराठा था केवल पराठा ..
उसे उठाया ....
तोडा कौर मुहँ तक लाया ...
खुशबू से मेरा तन और मन भर गया 
बिट्टी के स्नेह से मेरा अंतर्मन तक 
रोमांचित हो गया 
न वहां हिन्दू था न मुसलमान 
कामधेनु के दूध सद्रश ...
सुख देने वाला पराठा था ....
मैंने एक कौर खाया ...
खूब मनको भाया ...
मैंने श्रीमतीजी से कहा ...
कि गौर से देखो ये केवल एक पराठा है 
आलू भरा गोल गोल गरमा गरम 
प्यार और आस्था से सराबोर 
वे मेरी बात मानती हैं 
कुछ कुछ समझ उन्हें भी है 
उन्होंने भी हाथ बढाया ..
हम्दोनो ने ही पराठों को स्वाद से खाया 
हम तृप्त हो रहे थे 
पराठों के प्रेम में सराबोर हो रहे थे 
हाँ ..हमने बुज़ुर्ग पिताजी को नही बताया 
उनकी बरसों पुरानी आस्था को नहीं डिगाया 
उनके लिए अलगसे खाना बनाया 
और प्रेमसे उन्हें खिलाया 
यदि इसी प्रकार से ...
पराठों को लेने देने का ...
प्रचलन चल जाये ...तो 
दुनिया की संकुचित मनोवृति ...
कुछ कम हो जाये 
धर्म बड़ी चीज है इसमें कोइ शक नहीं 
पर मानवता और प्रेम से बड़ी ...
नहीं है…. .....
आस्था के सामने धर्मं कुछ भी नहीं है 
आस्था ही धर्म का भी  मूल है 
आस्था को जो न जान पाया 
वोह धर्म को क्या पहिचान पाया 
खैर हमने पराठे बड़े चाव से खाये 
उसके स्वाद और रस से ...
हमने खूब खूब आनंद उठाये 
अगली सुबह हमने बिट्टी को ...
गरमा गरम पराठों के लिए धन्यबाद दिया 
उनके चेहरे के संतोष और आभा में 
जो इस बात से थी 
कि हमने पराठे ख़ुशी और चाव से खाए 
मुझे तो उनके चेहरे पर…. 
काशी मथुरा और काबा भी ...

नज़र आये ....
काश इस शहर में और भी ..
बिट्टी यां होतीं ..
काश इस शहर में लोग 
भेजते पराठे एक दूसरे के घर ..
तो कुछ तो कम होती ...
यह हिन्दू मुसलमान की खाईं ..
जो इस देश के नेता ...
लगातार बढ़ा रहें हैं ....
और हिन्दू मुसलमान को ...
आपस में लड़ा रहें हैं ......
आपस में लड़ा रहें हैं ..
आपस में लड़ा रहें हैं ...



(समाप्त) 

मृत्यु क्यों...

मृत्यु          क्यों          इतनी.......... 
निर्मम                     निर्मोही 
और        क्रूर           होती   है 
कि       उठा      ले    जाती   है 
घर     का     इकलौता    चिराग 
कमाने        वाला            बेटा 
घर       चलाने    वाला     पति 
छोटे         छोटे       बच्चोँ   की 
प्यारी                प्यारी      माँ 

मृत्यु       के   क्रूर    हाँथ   क्यूँ 
लूट          लेते     हैं       किसी 
सधवा            का          सुहाग 
किसी        बृद्ध    माँ बाप    का 
एकलौता           कमाउ      बेटा 
उनके       बुढ़ापे        की   लाठी 
किसी      प्रेमी   की       प्रेमिका 

मृत्यु          अकाल            ही
लूटती            है            जीवन 
दुर्घटना                           बन 
किसी     आतितायी की गोली बन 
किसी          की      तलवार  बन 
काटती            है             गर्दन 

पर    मृत्यु     नहीं    हरती  प्राण 
उस         प्राणी    का            जो 
मारना           चाहता             है 
जो    बीमारियों       से    दुखों से 
लड़ता      लड़ता      थक चुका  है 
बुढ़ापे   ने जिसे जर्जर कर दिया है 
बीमारियों         ने            जिसे
खोखला       कर        दिया     है 

वह         मृत्यु      माँगता     है 
ईश्वर     से       प्रार्थनाएँ करता है 
पर           मृत्यु             उसके 
आस       पास     नहीं   फटकती 

अतः      प्रश्न     उठता      है कि 
मृत्यु       इतनी            निर्मम
निर्मोही    और क्रूर क्यों होती है ?
ये          ईश्वकर      का   विधान 
इतना        सख्त      क्यों है …?
कि      जो   मरना      नहीं चाहते 
अपितु          जीना        चाहते हैं 
असमय          मारे      जाते     हैं 
उनके                           परिवार
आँसुओं         में    डूब     जाते हैं 
और           जो    मरना  चाहते हैं 
पीड़ा          से      दुःख          से 
जर्जर    शरीर से छुटकारा चाहते हैं 
मर               नहीं             पाते 
ये    ही मृत्यु    के    क्रूर  निर्मोही 
निर्मम       होने                   के 
प्रत्यक्ष           प्रमाण             हैं 
और          साथ         ही     साथ 
ईश्वर         की                 इच्छा 
और उसके विधान का   प्रमाण  भी 
(समाप्त )
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव …

ज़िम्मेदार बनो ....

जिम्मेदार बनो       होशियार बनो
देशभक्त बनो         इमानदार बनो
मात्रभूमि     से           प्यार करो
मानवता   पर          उपकार करो
रखो      साफ़     तन     और मन
अपना        घर               आँगन
गली                            उपवन
गाँव      गाँव        शहर      शहर
सफाई    को      अभियान बनाओ
स्वयं    जुडो      सबको   जुड़ावो
सफाई की        आदत   अपनाओ
न        स्वयं             गंदे  रहेंगे
न आस  पास       गन्दा रहने देंगे
बीमारियों   को  न निकट आने देंगे
हम स्वच्छता की  अलख जगायेंगे
जन             जन के        मन में
स्वच्छता    की भावना    जगायेंगे
और वो        जो हमें      बाटते हैं
धर्मों       में          समूहों       मे
जातियों        मे     प्रदेशों       में
बोलियों                             में
लड़ाकर                           हमें
अपना     उल्लू सीधा      करतें हैं
राजनीती जिनका धंदा और शौक है
जिनके      अपने              स्वार्थ
मात्रभूमि      से भी         ऊपर हैं
जो       अपने     स्वार्थ के   लिये
देश            और    समाज    को
अपूरणीय                        छति
पहुंचाते                              हैं
ऐसे                लोगों            से   
इस                देश             की   
रक्षा     कौन                  करेगा ?
वोह भी  तुम्हे ही    तो करना है यदि
तुम               अपने            देश
शहर            गली      मोहल्ले घर
और               स्वयं            को
जरा         भी        प्यार करते हो
तो     जिम्मेदार बनो  होशियार बनो
देश भक्त बनो           इमानदार बनो
अवतारों के भरोसे             मत रहो
अपना काम स्वयं    तुम्हे ही करना है
अगर अपने देश को     सदा स्वाधीन
और उन्नत् भाल व् मजबूत रखना है....
बोलो     जय हिन्द        जय भारत
भारत           माता          की जय
इस        महान देश          का कोई
कुछ        बिगाड़         नहीं सकता
यदि       इसके      बच्चे      केवल
जिम्मेदार          ही नहीं       अपितु
देश भक्त        इमानदार    होशियार
सदाचारी                           और
स्वच्छता          के पुजारी       और
स्वच्छ           आचरण       वाले है
भगवान        करे ऐसा         ही हो
हमारे             नागरिक      अपनी
जिम्मेदारी                      निभाये
और            इस प्यारे      देश को
धरती     पर निखालिस स्वर्ग बनायें
(समाप्त)



अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव